वास्तु शास्त्र एक विज्ञान है जो हमारे घर और काम के स्थान पर समृद्धि, मानसिक शांति, खुशी और सामंजस्य को प्राप्त करने में मदद करता हैं। यह हमारे चारों ओर उपस्थित विभिन्न ऊर्जा को इस तरीके से कवच के रूप में पिरोता है कि व्यक्ति सद्भाव से रहता हैं।
वास्तुसशास्त्र का महत्व
अगर ये कहा जाए कि घर की खुशियों की कूंजी वास्तुशास्त्र में छिपी है तो हो सकता है कि आप तुरंत हमारी इस बात पर यकीन न करें। लेकिन जब आप वास्तु का सही अर्थ जान जाएंगे तब आपको इस बात पर यकीन होगा। दरअसल, वास्तु का सही अर्थ है चारों दिशाओं से मिलने वाली ऊर्जा तरंगों का संतुलन। लेकिन कई बार इन तरंगों के असंतुलन से कई दुष्परिणाम सामने आते हैं।
वास्तुसशास्त्र का महत्व
अगर ये कहा जाए कि घर की खुशियों की कूंजी वास्तुशास्त्र में छिपी है तो हो सकता है कि आप तुरंत हमारी इस बात पर यकीन न करें। लेकिन जब आप वास्तु का सही अर्थ जान जाएंगे तब आपको इस बात पर यकीन होगा। दरअसल, वास्तु का सही अर्थ है चारों दिशाओं से मिलने वाली ऊर्जा तरंगों का संतुलन। लेकिन कई बार इन तरंगों के असंतुलन से कई दुष्परिणाम सामने आते हैं।
मकान का मुख्य द्वार
मकान का मुख्य द्वार दक्षिण मुखी नहीं होना चाहिए। इसके लिए आप चुंबकीय कंपास लेकर जाएं। यदि आपके पास अन्य विकल्प नहीं हैं, तो द्वार के ठीक सामने बड़ा सा दर्पण लगाएं, ताकि नकारात्मक ऊर्जा द्वार से ही वापस लौट जाएं।
ड्रॉइंग रूम परिवार में लड़ाई-झगड़ों से बचने के लिए ड्रॉइंग रूम यानी बैठक में फूलों का गुलदस्ता लगाएं।
वास्तु पुरुष की अवधारणा
संस्कृत में कहा गया है कि... गृहस्थस्य क्रियास्सर्वा न सिद्धयन्ति गृहं विना। [1] वास्तु शास्त्र घर, प्रासाद, भवन अथवा मन्दिर निर्मान करने का प्राचीन भारतीय विज्ञान है जिसे आधुनिक समय के विज्ञान आर्किटेक्चर का प्राचीन स्वरुप माना जा सकता है।
डिजाइन दिशात्मक संरेखण के आधार पर कर रहे हैं। यह हिंदू वास्तुकला में लागू किया जाता है, हिंदू मंदिरों के लिये और वाहनों सहित, बर्तन, फर्नीचर, मूर्तिकला, चित्रों, आदि।
दक्षिण भारत में वास्तु का नींव परंपरागत महान साधु मायन को जिम्मेदार माना जाता है और उत्तर भारत में विश्वकर्मा को जिम्मेदार माना जाता है।
अनुक्रम
1 वास्तुशास्त्र एवं दिशाएं
1.1 वास्तुशास्त्र में पूर्व दिशा
1.2 वास्तुशास्त्र में आग्नेय दिशा
1.3 वास्तुशास्त्र में दक्षिण दिशा
1.4 वास्तुशास्त्र में नैऋत्य दिशा
1.5 वास्तुशास्त्र में इशान दिशा
2 सन्दर्भ
3 इन्हें भी देखें
4 बाहरी कड़ियाँ
वास्तुशास्त्र एवं दिशाएं
वास्तुशास्त्र एवं दिशाएं
उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम ये चार मूल दिशाएं हैं। वास्तु विज्ञान में इन चार दिशाओं के अलावा 4 विदिशाएं हैं। आकाश और पाताल को भी इसमें दिशा स्वरूप शामिल किया गया है। इस प्रकार चार दिशा, चार विदिशा और आकाश पाताल को जोड़कर इस विज्ञान में दिशाओं की संख्या कुल दस माना गया है। मूल दिशाओं के मध्य की दिशा ईशान, आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य को विदिशा कहा गया है।
वास्तुशास्त्र में पूर्व दिशा
वास्तुशास्त्र में यह दिशा बहुत ही महत्वपूर्ण मानी गई है क्योंकि यह सूर्य के उदय होने की दिशा है। इस दिशा के स्वामी देवता इन्द्र हैं। भवन बनाते समय इस दिशा को सबसे अधिक खुला रखना चाहिए। यह सुख और समृद्धि कारक होता है। इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर भवन में रहने वाले लोग बीमार रहते हैं। परेशानी और चिन्ता बनी रहती हैं। उन्नति के मार्ग में भी बाधा आति है।
वास्तुशास्त्र में आग्नेय दिशा
पूर्व और दक्षिण के मध्य की दिशा को आग्नेश दिशा कहते हैं। अग्निदेव इस दिशा के स्वामी हैं। इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर का वातावरण अशांत और तनावपूर्ण रहता है। धन की हानि होती है। मानसिक परेशानी और चिन्ता बनी रहती है। यह दिशा शुभ होने पर भवन में रहने वाले उर्जावान और स्वास्थ रहते हैं। इस दिशा में रसोईघर का निर्माण वास्तु की दृष्टि से श्रेष्ठ होता है। अग्नि से सम्बन्धित सभी कार्य के लिए यह दिशा शुभ होता है।
वास्तुशास्त्र में दक्षिण दिशा
इस दिशा के स्वामी यम देव हैं। यह दिशा वास्तुशास्त्र में सुख और समृद्धि का प्रतीक होता है। इस दिशा को खाली नहीं रखना चाहिए। दक्षिण दिशा में वास्तु दोष होने पर मान सम्मान में कमी एवं रोजी रोजगार में परेशानी का सामना करना होता है। गृहस्वामी के निवास के लिए यह दिशा सर्वाधिक उपयुक्त होता है।
वास्तुशास्त्र में नैऋत्य दिशा
दक्षिण और पश्चिक के मध्य की दिशा को नैऋत्य दिशा कहते हैं। इस दिशा का वास्तुदोष दुर्घटना, रोग एवं मानसिक अशांति देता है। यह आचरण एवं व्यवहार को भी दूषित करता है। भवन निर्माण करते समय इस दिशा को भारी रखना चाहिए। इस दिशा का स्वामी राक्षस है। यह दिशा वास्तु दोष से मुक्त होने पर भवन में रहने वाला व्यक्ति सेहतमंद रहता है एवं उसके मान सम्मान में भी वृद्धि होती है।
वास्तुशास्त्र में इशान दिशा
इशान दिशा के स्वमी शिव होते है, इस दिशा में कभी भी शोचालय कभी नहीं बनना चाहिये!नलकुप, कुआ आदि इस दिशा में बनाने से जल प्रचुर मात्रा में प्राप्त होत है